Modi सरकार के एक दांव से विपक्ष को लगा घाव, जानें क्या है मोदी के मास्टरस्ट्रोक का इतिहास?

नई दिल्ली। भारत में जाति जनगणना को लेकर एक बार फिर बहस तेज हो गई है। मोदी सरकार ने आगामी जनगणना में जाति आधारित गणना को शामिल करने का फैसला लिया है। यह निर्णय न सिर्फ सामाजिक न्याय के लिहाज से महत्वपूर्ण माना जा रहा है, बल्कि इसे बिहार जैसे राजनीतिक रूप से संवेदनशील राज्यों में आगामी चुनावों के दृष्टिकोण से भी अहम माना जा रहा है।

जाति जनगणना का इतिहास भारत में ब्रिटिश काल से जुड़ा हुआ है। पहली बार 1881 में देश में जनगणना की शुरुआत हुई, जो हर दस वर्ष में होती रही है। हालांकि, जाति आधारित गणना की बात करें तो आखिरी बार यह 1931 में की गई थी। उस समय देश में कुल 4,147 जातियों की पहचान की गई थी। इसके बाद जातिगत आंकड़े इकट्ठा करने की प्रक्रिया रुक गई, जिसका मुख्य कारण द्वितीय विश्व युद्ध और स्वतंत्र भारत में जातिगत पहचान को लेकर उपजे राजनीतिक और सामाजिक विवाद रहे।

वर्ष 2011 में पहली बार “सामाजिक-आर्थिक और जाति जनगणना (SECC)” के नाम से इस प्रक्रिया को फिर शुरू किया गया, लेकिन तकनीकी त्रुटियों और आंकड़ों की अशुद्धता के चलते अंतिम परिणामों को सार्वजनिक नहीं किया गया। उस समय करीब 46 लाख जाति, उपजाति और गोत्रों के नाम दर्ज किए गए थे, जिससे डाटा की शुद्धता और उपयोगिता पर सवाल उठे।

जनगणना और SECC में अंतर

सामान्य जनगणना का उद्देश्य देश की जनसंख्या की कुल संख्या, भाषा, धर्म, लिंग अनुपात, साक्षरता दर जैसी सूचनाएं एकत्र करना होता है। इसके अंतर्गत एकत्र किए गए आंकड़े गोपनीय रहते हैं और विशुद्ध रूप से सांख्यिकीय उपयोग के लिए होते हैं।
वहीं SECC का मुख्य उद्देश्य सामाजिक और आर्थिक स्थिति का आकलन करना होता है, खासकर ग्रामीण और शहरी वंचित वर्गों की पहचान करना। इसके तहत प्राप्त आंकड़े विभिन्न सरकारी योजनाओं में लाभार्थियों की पहचान के लिए उपयोग किए जाते हैं।

जाति जनगणना की जरूरत क्यों?

जातिगत आंकड़े नीति निर्माण, आरक्षण नीति के पुनरावलोकन और संसाधनों के न्यायसंगत वितरण के लिए आवश्यक माने जाते हैं। मौजूदा समय में आरक्षण और सामाजिक न्याय से जुड़ी नीतियों के आधार पुराने आंकड़ों पर टिकी हुई हैं, जिनमें वास्तविक स्थिति को दर्शाना कठिन होता जा रहा है।

इसके अलावा, विपक्षी दल लंबे समय से जाति जनगणना की मांग कर रहे थे। कांग्रेस समेत कई दलों का तर्क रहा है कि जब आर्थिक जनगणना संभव है, तो जातिगत आंकड़े एकत्र करने से परहेज क्यों?

राजनीतिक पृष्ठभूमि

मोदी सरकार का यह फैसला ऐसे समय आया है जब बिहार जैसे राज्यों में चुनाव की सरगर्मी शुरू हो रही है। जाति जनगणना को लेकर कांग्रेस पर पलटवार करते हुए केंद्र सरकार ने कहा है कि 2010 में तत्कालीन प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह ने इस मुद्दे को कैबिनेट में भेजने की बात की थी, लेकिन कांग्रेस ने इसे कभी गंभीरता से नहीं लिया।

जाति जनगणना केवल राजनीतिक मुद्दा नहीं, बल्कि यह सामाजिक समावेशिता और न्याय की दिशा में बड़ा कदम साबित हो सकता है। सही तरीके से और पारदर्शिता के साथ यदि इसे अंजाम दिया जाए, तो इससे नीतियों का लक्ष्य निर्धारण और लाभ वितरण अधिक प्रभावी ढंग से किया जा सकता है।

Rishabh Chhabra
Author: Rishabh Chhabra

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