देश के करोड़ों सरकारी कर्मचारियों और पेंशनभोगियों की नजरें इस समय सिर्फ 8वें वेतन आयोग पर टिकी हुई हैं। दिल्ली से लेकर राज्यों तक माहौल गर्म है और उम्मीद जताई जा रही है कि अगले 18 महीनों के भीतर आयोग अपनी रिपोर्ट सौंप देगा। अनुमान है कि जनवरी 2026 से नई वेतन व्यवस्था लागू हो सकती है। कर्मचारियों के लिए यह बेहद खुश करने वाली खबर है, मगर दूसरी तरफ सरकारों के सामने इस बढ़ोतरी का खर्च जुटाना एक बड़ी चुनौती बनकर उभर रहा है। अनुमान बताते हैं कि केंद्र और राज्यों पर हर साल करीब 3.7 से 3.9 लाख करोड़ रुपये का अतिरिक्त बोझ पड़ेगा।
कर्मचारियों के लिए खुशखबरी- 25% तक बढ़ेगी आय
नई व्यवस्था लागू होते ही सरकारी कर्मचारियों और पेंशनरों की सैलरी और पेंशन में लगभग 20–25 फीसदी की सीधी बढ़ोतरी हो सकती है। इसका लाभ देश के करीब 2.5 करोड़ लोगों को मिलेगा। इनमें 50 लाख केंद्रीय कर्मचारी, 65 लाख केंद्रीय पेंशनर और करीब 1.85 करोड़ राज्य कर्मचारी शामिल होंगे। ऐसी बड़ी आबादी की आय बढ़ने से बाजार में मांग बढ़ने की संभावना भी मजबूत हो जाएगी, जिससे अर्थव्यवस्था में एक नई हलचल देखने को मिल सकती है।
3.9 लाख करोड़ का बोझ- सरकारें कैसे संभालेंगी?
विशेषज्ञों के विश्लेषण के मुताबिक, वेतन आयोग लागू होते ही केंद्र सरकार के बजट पर लगभग 1.4 लाख करोड़ रुपये का अतिरिक्त भार पड़ेगा। लेकिन सबसे भारी दबाव राज्यों पर रहेगा, क्योंकि उनके यहां कर्मचारियों की संख्या कहीं अधिक है। राज्यों पर यह खर्च 2.3 से 2.5 लाख करोड़ रुपये तक जा सकता है। दोनों के कुल मिलाकर यह बोझ लगभग 3.7 से 3.9 लाख करोड़ रुपये सालाना तक पहुँच सकता है, जो वित्तीय स्थिति को गहराई से प्रभावित करेगा।
जीडीपी और वित्तीय घाटे पर बढ़ेगा दबाव
बढ़ते खर्च का सीधा असर देश की वित्तीय स्थिरता पर होगा। फिलहाल केंद्र का वित्तीय घाटा जीडीपी के 4.4% के आसपास है, जो वेतन आयोग लागू होने के बाद बढ़कर 5% तक पहुँच सकता है। वहीं राज्यों की स्थिति और कमजोर दिख रही है। उनका वित्तीय घाटा 3% की सीमा पार कर 3.7% तक जा सकता है। इसका मतलब यह होगा कि विकास परियोजनाओं जैसे सड़कें, अस्पताल, स्कूल के लिए बजट में कटौती करनी पड़ सकती है।
कम होती वित्तीय आजादी और कड़े फैसलों की आहट
2025–26 तक वेतन और पेंशन के खर्च के 5.7 लाख करोड़ रुपये तक पहुँचने का अनुमान है। ऐसे में वेतन बढ़ने पर सरकारों के पास वित्तीय स्पेस काफी कम हो जाएगा। विशेषज्ञों का कहना है कि इस अंतर को भरने के लिए या तो टैक्स बढ़ाना पड़ेगा, या फिर सरकारों को और अधिक कर्ज लेना पड़ेगा। यदि उत्पादकता में समान वृद्धि नहीं हुई, तो इसका दीर्घकालिक असर पूरी अर्थव्यवस्था पर नकारात्मक हो सकता है।