अक्सर देखा जाता है कि किसी व्यक्ति के निधन के बाद उसके दाह संस्कार की जिम्मेदारी पुरुषों को ही दी जाती है। महिलाओं को आमतौर पर श्मशान ले जाने या अंतिम संस्कार करने से मना कर दिया जाता है। समाज में यह धारणा फैली हुई है कि शास्त्र महिलाओं को दाह संस्कार से रोकते हैं, लेकिन क्या वास्तव में गरुण पुराण में ऐसा कोई उल्लेख मिलता है? इस सवाल का जवाब जानने के लिए गरुण पुराण में लिखे नियमों को समझना जरूरी है।
गरुण पुराण में मृत्यु और संस्कारों का वर्णन
गरुण पुराण 18 महापुराणों में एक महत्वपूर्ण पुराण माना गया है। इसमें जन्म के बाद मृत्यु, आत्मा की यात्रा और मृत्यु के बाद किए जाने वाले संस्कारों का विस्तृत वर्णन है। अंतिम संस्कार से जुड़ी बातें गरुण पुराण के ‘प्रेत खंड’ के आठवें अध्याय में लिखी गई हैं। इसी अध्याय में भगवान विष्णु ने गरुण को बताया है कि किसी व्यक्ति की मृत्यु के बाद उसके दाह संस्कार का अधिकार किसे प्राप्त होता है और इसे कौन निभा सकता है।
दाह संस्कार का पहला अधिकार किसे मिलता है
भगवान विष्णु ने बताया कि दाह संस्कार का पहला अधिकार पुत्र को मिलता है। यदि पुत्र न हो तो पौत्र यानी पोते को यह अधिकार प्राप्त होता है, और उसके बाद प्रपौत्र यानी परपोता यह कर्तव्य निभाता है। इन तीन पीढ़ियों की अनुपस्थिति में करीबी पुरुष रिश्तेदार जैसे भाई, भतीजा या उनके वंशज दाह संस्कार कर सकते हैं। यदि इनमें से भी कोई उपलब्ध न हो तो समान कुल में जन्मे पुरुष रिश्तेदार अंतिम संस्कार कर सकते हैं।
महिलाओं के अंतिम संस्कार करने पर क्या कहा गया है
भगवान विष्णु ने गरुण को यह भी बताया कि महिलाएं जैसे पत्नी, बेटी या बहन अंतिम संस्कार कर सकती हैं, लेकिन तब जब परिवार में कोई पुरुष सदस्य मौजूद न हो। इसी प्रकार, यदि परिवार में कोई भी रिश्तेदार न हो तो समाज का प्रमुख व्यक्ति मृतक का अंतिम संस्कार कर सकता है। इससे साफ होता है कि शास्त्रों में कहीं भी महिलाओं को अंतिम संस्कार करने से मना नहीं किया गया है।
सामाजिक परंपरा है महिलाओं को रोकना, धार्मिक नियम नहीं
महिलाओं को श्मशान जाने से रोकना या दाह संस्कार में शामिल होने से मना करना किसी धार्मिक नियम का हिस्सा नहीं है। यह एक सामाजिक परंपरा है जो समय के साथ विकसित हो गई। शास्त्रों में महिलाओं को अंतिम संस्कार से वर्जित नहीं बताया गया है, बल्कि जरूरत पड़ने पर उन्हें यह अधिकार स्पष्ट रूप से दिया गया है। इसलिए यह बात समझना जरूरी है कि धार्मिक मान्यता और सामाजिक रूढ़ियों में फर्क होता है, और महिलाओं को संस्कार करने से रोकना केवल एक समाज निर्मित मान्यता है, शास्त्रीय नहीं।