1971 में बांग्लादेश बनने से पहले पूर्वी पाकिस्तान में हिंदू परिवारों पर अत्याचार की हद पार हो गई थी. जब हालात असहनीय हो गए, तो सैकड़ों परिवारों ने जान बचाने के लिए भारत का रुख किया. उनमें से 106 परिवार कानपुर के भौति इलाके में बसाए गए, जहां उन्हें खेती के लिए पांच-पांच बीघा जमीन दी गई. सरकार ने वादा किया था कि भविष्य में उन्हें इस जमीन का मालिकाना हक मिलेगा, लेकिन वो वादा आज तक अधूरा है.
जमीन तो मिली, लेकिन हक नहीं
स्थानीय विधायक अभिजीत सिंह सांगा बताते हैं कि सीलिंग कानून के तहत गौशाला की जमीन इन परिवारों को दी गई थी, लेकिन गौशाला सोसायटी कोर्ट चली गई. नतीजा ये हुआ कि मालिकाना हक देने की प्रक्रिया ठप हो गई. पिछले 50 सालों से ये परिवार खेती तो कर रहे हैं, लेकिन बिना किसी कानूनी हक के.
तीन पीढ़ियां, एक ही बेबसी
रंजीत सरकार और बुजुर्ग विनय मंडल जैसे लोग आज भी उसी उम्मीद में हैं कि सरकार उनका वादा निभाएगी. नई पीढ़ी के युवा अभय मंडल कहते हैं कि वो सरकारी नौकरी की तैयारी करते हैं, लेकिन “बांग्लादेशी” का ठप्पा उनके रास्ते में दीवार बन गया है.
झोपड़ी में जिंदगी, बदबूदार नालों से जंग
इन परिवारों के पास पक्के मकान नहीं हैं. मिट्टी और फूस की झोपड़ियों में, बदबूदार नालों के किनारे, बिना शौचालय के जिंदगी गुजर रही है. महिलाएं बमुश्किल पर्दे का इंतजाम कर पाती हैं. बावजूद इसके, ये परिवार अपनी संस्कृति नहीं भूले — हर साल दुर्गा पूजा करते हैं और एक छोटा मंदिर भी बना रखा है.
अब उम्मीद सीएम योगी से
विधायक सांगा कहते हैं कि पीलीभीत के विस्थापितों को मालिकाना हक दिया गया है, तो कानपुर के परिवारों को भी उम्मीद है कि योगी सरकार उनके लिए फैसला लेगी. इन परिवारों की एक ही आस है — कि उन्हें भी भारतीय नागरिक के बराबर सम्मान और अधिकार मिलें.
