नागा साधुओं के जीवन में भभूत का विशेष महत्व है। यह शिव और शक्ति का प्रतीक मानी जाती है और जीवन की क्षणभंगुरता का आभास कराती है। भभूत को मस्तक से लेकर अंगुष्ठ तक शरीर पर लगाया जाता है। यह धुनी लगाने की प्रक्रिया का हिस्सा है, जिसका अर्थ है कि हमारी दिशा ही अंबर है और हम दिगंबर हैं। नागा साधुओं के लिए धुनी और भभूत उनके इष्टदेव महादेव से जुड़ी होती हैं।
लोकलज्जा रूप में भगवती का इस्तेमाल
भभूत का इस्तेमाल केवल शरीर पर लगाने तक सीमित नहीं है, बल्कि इसे लोकलज्जा के निवारण और मुक्ति के प्रतीक के रूप में भी देखा जाता है। यह दर्शाता है कि हर चीज अंततः राख में बदल जाती है। नागा साधु चिता की राख को मुक्ति की राख मानते हैं। जब यह उपलब्ध नहीं होती, तो वे इसे विशेष विधि से तैयार करते हैं।
नागाओं के पास आदिदैविक शक्ति
नागाओं से संबंधित 13 अखाड़े हैं, जो आध्यात्मिक, धार्मिक और सामाजिक रूपों में बंटे होते हैं। माना जाता है कि आदिदैविक शक्ति नागाओं के पास होती है, जबकि दैविक और आध्यात्मिक शक्ति उनके आचार्य के पास होती है। आदिशंकराचार्य ने जब सनातन धर्म के लिए संन्यास यात्रा शुरू की, तो उन्होंने अखाड़ों की स्थापना की। कुंभ में अखाड़ों के महामंडलेश्वर और गुरु अमृत स्नान के लिए जाते समय छत्र और सिंहासन का उपयोग करते हैं।
शिव और शक्ति का प्रतीक
नागा साधु अपने शरीर पर केवल उन वस्तुओं का उपयोग करते हैं जो उनके इष्टदेव महादेव से संबंधित होती हैं। उनका मानना है कि वे भगवान शिव के अंश हैं और उनकी सांसें भी शिव के सांसों की तरह हैं। शिव के शृंगार में चिता की भभूत का विशेष महत्व है और इसी कारण नागा साधु इसका प्रयोग करते हैं।
भभूत बनाने के लिए चीता की रात का प्रयोग
चिता की राख का प्रयोग करते समय यह सुनिश्चित किया जाता है कि वह पवित्र स्थान की हो, जैसे काशी, अयोध्या, मथुरा, उज्जैन। अगर चिता की पवित्र राख उपलब्ध न हो, तो नागा साधु हवन कुंड बनाकर उसमें लकड़ी जलाते हैं। इन लकड़ियों को हिंगलाज देवी का रूप माना जाता है और त्रिशूल गाड़कर हवन प्रक्रिया पूरी की जाती है। धुनी को शिव और शक्ति दोनों का प्रतीक माना जाता है और इसे शिव-शक्ति का प्रसाद मानकर शरीर पर लगाया जाता है।
